JAI MAHAKAL

Thursday, 14 September 2017

Lord Parshuram

भगवान परशुराम



आध्यात्मिक विद्या के क्षेत्र में भगवान परशुराम एक असाधारण गुरु हैं। कभी-कभी इनकी तुलना महर्षि दुर्वासा और महर्षि विश्वामित्र से करने की इच्छा करती है। अन्तर इतना है कि जहाँ भगवान परशुराम अपराधी को दंड देने के लिए अपने शस्त्र से काम लेते हैं, वहाँ महर्षि दुर्वासा और महर्षि विश्वामित्र अपनी वाणी से शाप देकर। पर ये तीनों आचार्य
आध्यात्मिक जगत के अप्रतिम विभूति हैं। यहाँ आचार्य शब्द का प्रयोग जानबूझ कर किया गया है। क्योंकि भगवान परशुराम ने स्वयं को कौलाचार्य शब्द से अभिहित किया है-

परशुरामकल्पसूत्र नामक ग्रंथ के पहले से सत्रहवें खण्ड के अन्त में पुष्पिका में इन्होंने अपना परिचय देते हुए लिखा है-

रेणुकागर्भसम्भूत-दुष्टक्षत्रियकुलान्तक-श्रीभार्गवोपाध्याय-महाकौलाचार्य-श्रीमत्परशुरामकृतौ परशुरामकल्पसूत्रे ........... खण्डः।




अर्थात् रेणुका के गर्भ से उत्पन्न, दुष्ट क्षत्रिय कुल का अन्त करनेवाले, भार्गव कुल में उत्पन्न उपाध्याय (शिक्षक), महाकौलाचार्य श्रीमत् परशुराम कृत परशुरामकल्पसूत्र का ......खण्ड सम्पन्न हुआ।

लेकिन अन्तिम (अठारहवें) खण्ड की पुष्पिका में थोड़ा परिवर्तन के साथ अपना परिचय निम्नलिखित रूप में दिया है-

श्रीदुष्टक्षत्रियकुलकालान्तक-रेणुकागर्भसम्भूत-महादेवप्रधानशिष्य-जामदग्न्यपरशुरामभार्गव-महोपाध्याय-महाकुलाचार्यनिर्मित-कल्पसूत्रं सम्पूर्णम्।

अर्थात् दुष्ट क्षत्रिय कुल का अन्त करनेवाले, रेणुका के गर्भ से उत्पन्न, महादेव के प्रधान शिष्य, जमदग्नि के पुत्र, भार्गव कुल में उत्पन्न और उपाध्याय (शिक्षक), महाकौलाचार्य द्वारा विरचित कल्पसूत्र सम्पूर्ण हुआ।

महाकवि संत तुलसीदास उन्हें क्षत्रिय कुल द्रोही कहा है। पर भगवान परशुराम के उक्त कथन से ऐसा नहीं लगता। वे केवल दुष्ट क्षत्रियों, जो अपने बाहुबल के गर्व में चूर होकर निर्बल लोगों पर अत्याचार करते थे, के अन्तक थे, सभी क्षत्रियों के नहीं। क्योंकि उसी काल में महाराज जनक, महाराज दशरथ आदि अनेक राजा थे, जिनसे उनका कोई बैर नहीं था।

इसके अलावा भगवान शिव का प्रधान शिष्य के रूप में अपना परिचय दिया है। इसका तात्पर्य है कि गणेश, अर्जुन आदि के ऊपर अपनी प्रधानता मानते हैं। पाठकों को ज्ञात होगा कि अस्त्र-शस्त्र विद्या के उनके गुरु साक्षात् भगवान शिव ही हैं औरअमोघ परशु शस्त्र परशुराम को भगवान शिव ने ही प्रदान किया था। इसीलिए ये राम से परशुराम बन गए। क्योंकि जमदग्नि पुत्र राम (परशुराम), दशरथ पुत्र राम और नन्द-पुत्र राम (बलराम) तीन राम हैं। हाँ, यहाँ आश्चर्य यह अवश्य होता है कि उन्होंने अपने गुरु दत्तात्रेय का नाम नहीं लिया है।

आगे बढ़ने से पहले एक दृष्टि उनकी वंश-परम्परा पर डाल लेते हैं। ब्रह्मा के नौ मानस पुत्रों में से एक महर्षि भृगु हैं। ये एक वैदिक ऋषि हैं, अर्थात् मन्त्रद्रष्टा ऋषि हैं। ऋग्वेदादि में इनकी चर्चा हुई है। इन्हें वरुण-पुत्र भी कहा गया है। महर्षि भृगु के पुत्र महर्षि ऋचीक हुए। इनके पुत्र महर्षि जमदग्नि और इनके पाँचवें और सबसे छोटे पुत्र हैं परशुराम। इनकी माता रेणुका थीं, जो राजा प्रसेनजित या राजा रेणु की कन्या थीं। कुछ ग्रंथों के अनुसार रेणु ऋषि थे। ऐसा हो सकता है कि वे तपस्या करके बाद में महर्षि विश्वामित्र की भाँति ऋषित्व को उपलब्ध हुए हों।

परशराम जी बचपन से ही निर्भय थे और शस्त्रास्त्र की शिक्षा में उनकी अभिरुचि थी। पिता महर्षि जमदग्नि ने इनपर अपनी इच्छा से इनकी शिक्षा-दीक्षा को बिना प्रभावित किए इनकी प्रवृत्ति के अनुसार इनकी शिक्षा की व्यवस्था की। थोड़ा बड़े होने पर पिता की आज्ञा लेकर ये हिमालय की ओर प्रस्थान किए और वहाँ भगवान शिव की कठोर तपस्या में लीन हो गए। कुछ समय बाद भगवान शिव प्रसन्न होकर प्रकट हुए। कहा जाता है कि गुरु को अपनी अप्रतिम सेवा से प्रसन्न करके इन्होंने उनसे सभी दिव्यास्त्रों को प्राप्त किया जो किसी के लिए भी अलभ्य थे। एक लम्बे समय तक उन दिव्यास्त्रों का अभ्यास अपने गुरु भगवान शिव की देखरेख में ही किया। उनकी प्रतिभा, निष्ठा और गुरुभक्ति से प्रसन्न होकर भगवान शिव ने उन्हें दिव्य परशु प्रदान किया, जो सदा के लिए उनके नाम के साथ संयुक्त होकर रह गया। कहीं-कहीं ऐसा भी उल्लेख मिलता है कि भगवान शिव से शिक्षा ग्रहण करने के बाद ये महर्षि कश्यप के आश्रम में रहकर उनके सान्निध्य में इन शस्त्रास्त्रों का अभ्यास किया था। इसके बाद अनन्य तपस्य़ा और शस्त्रास्त्रों के अभ्यास से अलौकिक आभा से उद्दीप्त होकर युवक परशुराम अपने माता-पिता के पास लौट आए। कहा जाता है कि बाद में इन्होंने स्वयं भी अनेक दिव्यास्त्रों की रचना की।

भगवान परशुराम के लिए उनके जीवन में माता, पिता और गुरु से बढ़कर किसी अन्य की कोई महत्ता नहीं थी, भगवान की भी नहीं। इनके लिए ये कोई भी त्याग करने या कुछ भी कर गुजरने के लिए सदा तत्पर रहते थे। इनकी इसी प्रवृत्ति और निष्ठा ने इनके जीवन में य़श और अपयश की रेखाओं से इनके अनिर्वचनीय वृत्त का निर्माण किया। इनके द्वारा विरचितपरशुरामकल्पसूत्र आगम शास्त्र में वर्णित श्रीविद्या का अद्वितीय ग्रंथ है। इनके शिष्य सुमेधा मुनि ने त्रिपुरारहस्य़ नामक आगम ग्रंथ का प्रणयन किया। इसे हरितायन-संहिता भी कहते हैं। महर्षि सुमेधा का ही दूसरा नाम हरितायन है। इसी लिए इसे इनके इसी नाम के साथ जोड़कर देखा जाता है। इस ग्रंथ के तीन खण्ड हैं- माहात्म्य खण्ड, ज्ञान खण्ड और चर्या खण्ड। फिलहाल चर्या खण्ड अनुपलब्ध ग्रंथों की सूची में है। कहा जाता है कि त्रिपुरारहस्य भगवान दत्तात्रेय और परशुराम संवाद का संकलन है, जिसे अपने परम गुरु और गुरु के आदेश से महर्षि हरितायन ने लिपिबद्ध किया।

उपर्युक्त तथ्यों से यह स्पष्ट है कि भगवान परशुराम एक अद्वितीय योद्धा, शस्त्रास्त्र विद्या और श्रीविद्या परम्परा की तंत्र-साधना के प्रमुख आचार्यों में से एक हैं। यहाँ तक इन्हें पहुँचानेवाली परिस्थितियों पर चर्चा अगले अंकों में की जाएगी। इस अंक में बस इतना ही।

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